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Showing posts from August, 2021

रश्मीरथी षष्ठम सर्ग ( रामधारी सिंह दिनकर)

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नरता कहते हैं जिसे, सत्तव क्या वह केवल लड़ने में है ? पौरूष क्या केवल उठा खड्ग मारने और मरने में है ? तब उस गुण को क्या कहें मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है ? लेकिन, तक भी मारता नहीं, वह स्वंय विश्व-हित मरता है। है वन्दनीय नर कौन ? विजय-हित जो करता है प्राण हरण ? या सबकी जान बचाने को देता है जो अपना जीवन ? चुनता आया जय-कमल आज तक विजयी सदा कृपाणों से, पर, आह निकलती ही आयी हर बार मनुज के प्राणों से। आकुल अन्तर की आह मनुज की इस चिन्ता से भरी हुई, इस तरह रहेगी मानवता कब तक मनुष्य से डरी हुई ? पाशविक वेग की लहर लहू में कब तक धूम मचायेगी ? कब तक मनुष्यता पशुता के आगे यों झुकती जायेगी ?   यह ज़हर ने छोड़ेगा उभार ? अगांर न क्या बूझ पायेंगे ? हम इसी तरह क्या हाय, सदा पशु के पशु ही रह जायेंगे ? किसका सिंगार ? किसकी सेवा ? नर का ही जब कल्याण नहीं ? किसके विकास की कथा ? जनों के ही रक्षित जब प्राण नहीं ? इस विस्मय का क्या समाधान ? रह-रह कर यह क्या होता है ? जो है अग्रणी वही सबसे आगे बढ़ धीरज खोता है। फिर उसकी क्रोधाकुल पुकार सबको बेचैन बनाती है, नीचे कर क्षीण मनुजता को ऊपर पशुत्व को लाती है। हाँ, नर

रश्मिरथी पंचम सर्ग (रामधारी सिंह दिनकर)

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आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का, निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का. हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी, कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी. कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी, रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी. संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा, सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा. जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा, परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा. कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे, नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे. सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में, कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में. 'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा? सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा? 'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई, सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई? सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा, अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा? दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही, जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही, पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे, बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे? 'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी? समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी? हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को, है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को? गांधारी महिमामयी, भीष्म ग

रश्मीरथी सप्तम सर्ग (रामधारी सिंह दिनकर )

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रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल, कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल। बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह, उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह। अङगार-वृष्टि पा धधक उठे जिस तरह शुष्क कानन का तृण, सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण। यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बद्ध मनुज का वश, हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश। भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण, भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण ! "रण में क्यों आये आज?" लोग मन-ही-मन में पछताते थे, दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे। काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण। सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण। अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह; कुछ और समुद्वेलित होकर, उमड़ा भुज का सागर अथाह। गरजा अशंक हो कर्ण, “शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं, कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकड़ता हूं। बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके, लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय