Posts

रश्मीरथी चतुर्थ सर्ग( रामधारी सिंह दिनकर )

Image

एक नजर। जो देख रही है हमें।

Image
उस एक नजर से एक नजारा, देखने की ख्वाहिश मे नजरे दौड़ाने लगी मै उपर ,तारों की नुमाइश में चमक रहे थे सभी चकाचौंध बहुत थी , कुछ एक अपनी पहचान अलग थी, और खो गई नजर भी , उन्ही की चमक में , क्योंकी ! नींद के नशे में ,शायद राह में लडखडा गई थी, क्योंकि अब यह सपनों की तरफ आ गई थी। हर नजारे को, एक नए नजरिए से देखती नजर सतरंगी जहां के रंगो में डूबती जा रही थी, ये खुशमिजाज नजर गुजर रही थी , ऐक खूबसूरत शहर से, सब ठीक था , फिर अचानक!!!!!!!!!! देखा नजारा खौफनाक था तबाही ही तबाही थी, वो मंजर दर्दनाक था, नजर के होंश उड गए अब नजर में बस अंधेरा ही अंधेरा था हृदय की नब्ज तेज थी , और मन डर गया था, क्योंकि वह खौफनाक दृश्य मात्र एक कल्पना थी, मेरे डरपोक मन की,चित्रांकन। जिसका नजर ने देख लिया था। पर एक नजर का आभास,मेरी आत्मा करा करती है जिस नजर के कारण,कुछ गलत करने से डरती है, क्योंकि वह जानती है उसकी नजर हमें देख रही है जिससे कोई नहीं छुप सकता। वो परमात्मा की नजर है हम...

रश्मिरथी द्वितीय सर्ग (रामधारी सिंह दिनकर)

Image
रामधारी सिंह दिनकर  (भारतीय कवि) शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर, कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर। जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन, हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन। आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं, शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं। कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन, कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन। हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है, भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है, धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे? झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे। बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं, वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं। सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर, नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर। अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन, एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण। चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली, लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है...

रशमीरथी तृतीय सर्ग (रामधारी सिंह दिनकर)

Image
तर्तीय सर्ग  1 हो गया पूर्ण अज्ञात वास, पाडंव लौटे वन से सहास, पावक में कनक-सदृश तप कर, वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, कुछ और नया उत्साह लिये। सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं। मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं, शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है। गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर, मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो। बत्ती जो नहीं जलाता है रोशनी नहीं वह पाता है। पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड, मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार। जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं।         2 वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ? अतुलित यश क्...

पदार्थ का रासायनिक एवं भौतिक वर्गीकरण क्या होता है जानिए। ( पदार्थ एवं उसकी अवस्थाऐं)

Image
रसायन विज्ञान का परिचय  "रसायन विज्ञान( chemistry ) विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत पदार्थों के गुण संगठन संरचना तथा उन में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है।"          "Chemistry अर्थात रसायन विज्ञान शब्द की उत्पत्ति मिश्र के प्राचीन शब्द कीमियां ( chemea) से हुई है जिसका अर्थ है काला रंग।मिश्र के लोग काली मिट्टी को केमीchemi कहते थे और प्रारंभ में रसायन विज्ञान के अध्ययन के कैमिटेकिंग chemeteching कहां जाता था।"   "वैज्ञानिक लेवासियर( Lavosier)को रसायन विज्ञान का जनक कहा जाता है ।"   पदार्थ एवं उसकी प्रकृति  पदार्थ metter :दुनिया की कोई भी वस्तु जो स्थान गिरती हो जिसका द्रव्यमान होता हो और जो अपनी संरचना में परिवर्तन का विरोध करती हो पदार्थ कहलाते हैं उदाहरण, जल ,हवा बालू आदि ।  प्रारंभ से ही भारतीयों और यूनानी यों का अनुमान है प्रकृति की सारी वस्तुएं पांच तत्वों के संयोग से बनी है यह पांच तत्व है, क्षितिज, जल, पावक, गगन ,समीर । भारत के महान ऋषि कणाद के अनुसार सभी पदार्थ अत्यंत दुश्मन से बने हैं जिसे परमाणु कहा जाता है ...

रशमीरथी प्रथम सर्ग (रामधारी सिंह दिनकर )

Image
 1 'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को, जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को। किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल, सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल। ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के। हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक, वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी, उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी। सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर, निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर। तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी, जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी। ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास, अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास। 2 अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से, कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।...