(स्वतंत्रता दिवस )हमारी देशभक्ति क्या यहीं तक सीमित हो रही है । क्या सच में इसे हम देशभक्ती का नाम दे सकते हैं।

स्वतंत्र भारत 

15 अगस्त को भारत में स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाया जाता है क्योंकि आज ही के दिन (15 अगस्त 1947) देश को अंग्रेजों के अत्याचारों से आजादी मिली थी, इसीलिए इस दिन को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वतंत्रता दिवस भारत के नागरिकों के लिए विशेष महत्व रखता है। यह दिन हमे आजादी के लिए स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए त्याग और बलिदान की याद दिलाता है।
स्वतंत्रता  का शाब्दिक अर्थ तंत्र शब्द अंग्रेजी के शब्द लिबर्टी का हिंदी रूपांतर है जिसका अर्थ है बंधनों का अभाव या मुक्ति इच्छा अनुसार कार्य करने की छूट।
आजादी यह एक ऐसा शब्द है जो प्रत्येक भारतवासी की रगों में खून बनकर दौड़ता है। स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। तुलसीदास जी ने कहा है 'पराधीन सपनेहुं सुखनाहीं' अर्थात्‌ पराधीनता में तो स्वप्न में भी सुख नहीं है। पराधीनता तो किसी के लिए भी अभिशाप है। जब हमारा देश परतंत्र था उस समय विश्व में न हमारा राष्ट्रीय ध्वज था, न हमारा कोई संविधान था। 

आज हम पूर्ण स्वतंत्र हैं तथा पूरे विश्व में भारत की एक पहचान हैं। हमारा संविधान आज पूरे विश्व में एक मिसाल है। जिसमें समस्त देशवासियों को समानता का अधिकार है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज भी प्रेम, भाईचारे व एकता का प्रतीक है।

 भारत  के महान संविधान में विशेष रूप से भारत के प्रत्येक नागरिक को आजादी का अहसास कराया गया है अथवा विशेष अधिकार दिए हैं। जब से हमारा भारत आजाद हुआ है तभी से आर्थिक व तकनीकी रूप से हमारा देश सम्पन्नता की ऊंचाइयों तक पहुंचा है। 

आज पूरे विश्व में भारत आशा की किरण बनकर सूर्य की भांति आकाश में चमक रहा है, यह सब आजाद भारत में ही संभव हुआ है। हमें ये आजादी आसानी से नहीं मिली है, इसके लिए देश के शूरवीरों व आजादी के मतवालों ने अपना बलिदान देकर दिलाई है, हमें उनका सदैव आभार मानना चाहिए। 




आज हम आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हैं, वह सब भारत माता के उन सपूतों की याद दिलाता है, जिन्होंने अपना सर्वस्व देश के नाम कर दिया था। भारत के प्रसिद्ध विद्वानों, कवियों, इतिहासकारों अथवा लेखकों ने भारत का सामाजिक रूप से सुधार करके भारत की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिए।
 

आज हमारे देश को आजाद हुए क 75 साल पूरे हो चुके हैं
इस बार हमारा देश में 75 स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है
स्वतंत्रता दिवस मात्र एक पर्व ही नहीं, वरन उन तमाम संघर्षों, कुर्बानियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद करने का दिन है जिनके बिना हम यह दिन मना ही नहीं पाते। यह उन संकल्पों को भी दोहराने का दिन है जो हमने आजादी की लड़ाई के दौरान लिए थे। क्या हमें वे संघर्ष, वे सेनानी और वे संकल्प याद हैं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने वर्तमान संघर्ष और भविष्य निर्माण में इस कदर मशगूल है कि उसे अपने अतीत और इतिहास का समुचित भान ही नहीं। कौन और कैसे कराएगा उसका अहसास? यह काम इसलिए बहुत जरूरी है, क्योंकि आज जिस खुली हवा में हम सांस ले पा रहे हैं उसे हमने केवल अपने हक की तरह देखा है। उसके पीछे के संघर्ष और बलिदान से नावाकिफ हम उसके मूल्य और उसे सहेजने के अपने दायित्व को ठीक से समझ नहीं पाए हैं।आज हम जिस स्वतंत्रता और अधिकार का दावा करते हैं उसका एक सामाजिक और राष्ट्रीय पहलू भी है जिसे हम नजरंदाज कर देते हैं। इससे ही समाज में अनेक संघर्षों का जन्म होता है और उन उद्देश्यों को प्राप्त करने की गति धीमी पड़ती है जिनका संकल्प हमने लिया था। क्या थे वे संकल्प? एक संकल्प गांधी का था। वह समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के आंसू पोंछना चाहते थे। दूसरा संकल्प नेहरू का था जो उन्होंने 14 अगस्त 1947 की आधी रात को स्वतंत्रता के उद्घोष के समय ‘नियति-से-वादा’ करते हुए लिया था कि हम भारत की सेवा करेंगे। इसका अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है गरीबी, अज्ञानता और अवसर की असमानता मिटाना।
एक अन्य संकल्प हमने संविधान में लिया कि हम भारत के सभी नागरिकों को ‘न्याय, स्वतंत्रता, समानता के साथ-साथ गरिमापूर्ण और भाईचारे से परिपूर्ण जीवन’ सुनिश्चित करेंगे। ये ऐसे संकल्प हैं जो सर्वविदित और निर्विवाद हैं। क्या बीते सात दशकों में हमने इन संकल्पों को सिद्ध करने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास किया है? हमें यह सवाल स्वयं से ही पूछना है। यह सवाल हम किसी सरकार पर नहीं दाग सकते, क्योंकि फिर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाएंगे और मूल-प्रश्न उपेक्षित हो जाएगा। ध्यान रहे सरकारें देश नहीं होतीं। जनता देश होती है। जनता सरकार होती है और इसीलिए हमें-आपको आज की स्थिति का उत्तरदायित्व स्वीकार करना पड़ेगा।

क्या यही हमारी देशभक्ति है-

इस बार विचार करना आवश्यक है, कि हम अपनी आजादी को कोई सही अर्थ दे पाए है? भले ही हमने आजादी के बाद देश का व्यापक विकास करने में कामयाबी हासिल की है लेकिन क्या हम आजादी का सही अर्थ समझ पाए हैं? क्या इस दौर में हम देशभक्ति के नारे लगाने से देशभक् हो जाएंगे?
देशभक्त होने का सही अर्थ तो यह है कि हम अपना अपना काम ईमानदारी के साथ करते रहे कहीं पर भी भारत माता या देशभक्ति के नारे लगाकर हिंसा भड़का ना किसी भी तरह से देशभक्ति नहीं हो सकती है किसी भी तरह से देश भक्ति नहीं हो सकती है।
एक अच्छा देश भक्त बनने के लिए देश के प्रति एक जिम्मेदार नागरिक बनना जरूरी होता है।
क्या जरूरी होता है कि हम अपने देश के सभी नागरिकों को बराबर आंके । किसी में भी जाति अथवा  मजहब के नाम पर भेदभाव ना करें। किसी भी जाति या धर्म का होने से पहले हम खुद को भारत का नागरिक समझे।

किंतु दुर्भाग्यपूर्ण बााात यह है कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी दलितों पर अत्याचाार की कई घटनाएं सामने आती है है आज भी कई अल्पसंख्यकोंं को संदेह कीीी नजर से देखा जाता है सामान समुदाय काा भी एक दूसरे पर विश्वाााास घटता जा रहा है रहा है हिंदू और मुस्लिम के बीच कीीी खाई घटना का नाम हीी नहीं लेे रही है आज भी देशभर में लोोग जाति समुदाय धर्म आदि के गुलाम बने हुए हैं। हिंसा के जिस भाव ने महात्माा गांधी की जान लेे ली उसेेेेेे आज जानबूझकर भड़काया जा रहाा है ।

क्या हम देशभक्त कहलाने लायक हैं?

सवाल यह है कि क्या किसी युद्ध के समय एक आम भारतवासी का खून खौल जाना ही देशभक्ति है? अक्सर यह देखा गया है जब भी किसी दूसरे देश से जुड़े आतंकवादी या फौजी हमारे देश पर किसी भी तरह से हमला करते हैं तो हमारा खून खौल उठता है। लेकिन बाकी समय हमारी देशभक्ति कहां चली जाती है? हम बड़े आराम से देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं, भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाकर शहीदों का अपमान करते हैं तथा अपना घर भरने के लिए देश को खोखला करने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। ऐसे समय में क्या हम देशभक्त कहलाने लायक हैं? स्पष्ट है कि मात्र बाहरी आक्रमण के समय हमारा खून खौल उठना ही देशभक्ति नहीं है। बाहरी आक्रमण के साथ-साथ देश को विभिन्न तरह के आंतरिक आक्रमणों से बचाना ही सच्ची देशभक्ति है। देश पर आंतरिक आक्रमण कोई और नहीं, बल्कि हम ही कर रहे हैं।


दरअसल पिछले करीब सात दशकों में हमने भौतिक विकास तो बहुत किया, लेकिन आत्मिक विकास के मामले में हम पिछड़ गए। स्वतंत्रता को हमने इतना महत्वहीन बना दिया कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को अपने कार्यस्थल पर पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि देना भी हमें भारी लगने लगा। इस दौर में हम शहीदों का बलिदान और स्वतंत्रता का महत्व भूल चुके हैं। तभी तो आज हमारे लिए एक औपचारिकता के अतिरिक्त स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस कोई मायने नहीं रखता है। आज के समय में तब अत्यधिक आश्चर्य होता है जब आप छात्रों से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का अर्थ पूछें, और बहुत से छात्र उसका ठीक-ठाक उत्तर नहीं दे पाएं। हमारी शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था पर इससे बड़ा सवाल खड़ा होता है।

क्या अपनी ही जड़ों को खोखला करने की आजादी के लिए ही हमारे शहीदों ने बलिदान दिया था? 

पिछली सदी के नौवें दशक तक लगभग प्रत्येक घर में परिवार के अधिकतर सदस्य 26 जनवरी की परेड देखने के लिए टीवी से चिपके रहते थे। आज ऐसा महसूस हो रहा है कि हम स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को ढो भर रहे हैं। इस दौर में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह वही आजादी है जिसकी परिकल्पना हमारे शहीदों ने की थी? क्या अपनी ही जड़ों को खोखला करने की आजादी के लिए ही हमारे शहीदों ने बलिदान दिया था? सवाल यह है कि ऐसे दिवसों व आयोजनों से भारतीय जनमानस का मोहभंग क्यों हो रहा है? दरअसल हमारे जनप्रतिनिधि भी भारतीय समाज को कोई भरोसा नहीं दिला पाए हैं। चारों ओर पसरे खोखले आदर्शवाद ने स्थिति को बदतर बना दिया है। यही कारण है कि आज हमने स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को मात्र एक छुट्टी का दिन मान लिया है।ध्वजारोहण हेतु एक-दो घंटे के लिए कार्यालय जाने पर छुट्टी का मजा किरकिरा हो जाता है। हम यह भूल जाते हैं कि हम जिस मजे की बात कर रहे हैं वह शहीदों की शहादत का ही सुफल है। 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम आजाद हवा में सांस लेने को मजा मानते ही नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पराधीन भारत के दर्द को न ही हमने स्वयं भोगा है और ना ही इस दौर में उसे महसूस करने की संवेदना हमारे अंदर बची है।इसीलिए हमारे मजे की परिभाषा में इस छुट्टी के दिन देर तक सोना, फिल्में देखना या फिर बाहर घूमने-फिरने निकल जाना ही शामिल है। प्रश्न यह है कि क्या हमने पराधीन भारत के दर्द को महसूस करने की कोशिश की है? इस दिन शॉपिंग मॉल में घूमना-फिरना तो हो जाता है, लेकिन क्या हम इस दिन पराधीन भारत के दर्द को महसूस करने या फिर बच्चों को जानकारी देने के लिए स्वाधीनता संग्राम से जुड़े किसी ऐतिहासिक स्थल पर घूमने-फिरने जाते हैं?


सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा


भारत एक चमत्कार है इसे सहेजकर रखना हमारी जिम्मेदारी है 


हमारा भारत दुनिया का एक ऐसा विरला देश प्रतीत होता है, जहां विविध धर्म, भाषा एवं संस्कृति के लोग परस्पर प्रेम और भाईचारे के साथ मिलकर देश की एकता-अखंडता को बरकरार रखने के लिए प्रतिबद्ध नजर आते हैं। आदिकाल से ही ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य, योग-अध्यात्म एवं अन्य विधाओं के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में भारतवर्ष की ख्याति दुनिया के कोने-कोने में फैली। एक विदेशी विद्वान भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर इतना कह गए कि ‘भारत एक चमत्कार है।’हमारी प्राचीन सभ्यता सदियों से दुनिया को आकर्षति करती रही है। यहां कबीर, रैदास, नानक जैसे महान संत और गांधी, आंबेडकर, ज्योतिबा फूले और ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे विशिष्ट समाज सुधारकों ने जन्म लिया है।
यहां के मनीषियों, विद्वानों और वैज्ञानिकों ने अपनी विद्या, विचार एवं दर्शन से संपूर्ण विश्व को ऊर्जावान किया है। हमारे प्रबुद्ध पूर्वजों ने हमारे लिए समृद्ध सांस्कृतिक विरासत छोड़ी है। इस अमूल्य विरासत को सहेजने की जिम्मेदारी वर्तमान तथा आने वाली पीढ़ियों दोनों की है। युवा इसमें अपना बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं।
बीते कुछ दशकों के दौरान चंद अराजक एवं निहित स्वार्थी तत्वों ने गौरवशाली भारत की एकता और अखंडता को तोड़ने की पुरजोर कोशिशें की है। तीन छोटे-छोटे संकल्प ले लें तो बदलाव की एक शुरुआत करते दिखने लगेंगे। एक, हम ज्यादा और बेहतर काम करेंगे। दो, अपना गुणात्मक उन्नयन करेंगे और इस क्रम में अपने हुनर में कुछ न कुछ बढ़ोतरी करते रहेंगे और अंतिम, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण, हम कोई ऐसा काम जरूर करेंगे जिससे समाज की कुछ-न-कुछ बेहतरी हो सके। अक्सर कहा जाता है कि स्वयं को बदलो, परंतु कोई यह नहीं बताता कि हम ऐसा करें कैसे? यदि हमने इन तीन संकल्पों को अमली जामा पहना दिया तो न केवल हम बदल जाएंगे, वरन समाज में भी गुणात्मक परिवर्तन हो सकेगा। इसी से भारत के सपनों को साकार करने में मदद मिलेगी।


स्वतंत्रता के 75 वर्षों में देश ने बहुत प्रगति और विकास किया है। वैश्विक स्तर पर आज भारत की एक विशेष पहचान है, लेकिन सामाजिक स्तर पर जो मजबूती और उन्नयन हो सकता था उसमें अभी काफी सुधार की गुंजाइश है। राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र के प्रक्रियात्मक पक्ष अर्थात चुनावों और सत्ता-प्राप्ति के साधनों पर तो ध्यान दिया, लेकिन उसके साध्य अर्थात लोक-कल्याण, सामाजिक समरसता, न्याय, समानता और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता बढ़ाने वाले भाईचारे आदि पर ध्यान नहीं दिया। राजनीतिक दलों ने सामाजिक विभिन्नता को एक शक्ति के रूप में विकसित करने के बजाय उसे सामाजिक विघटन और संघर्ष की दिशा में मोड़ दिया है ताकि उसका राजनीतिक लाभ लिया जा सके।

आज भी राष्ट्रीय विमर्श टुकड़ों में बंटा हुआ है। वह दलित, अनुसूचित-जनजाति, पिछड़ों और मुस्लिमों पर ठहरा हुआ है। भारतीय नागरिक की बात कोई करना ही नहीं चाहता। हाल में संसद द्वारा अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम को सर्वोच्च न्यायालय की आपत्तियों को दरकिनार कर सर्व-सम्मति से पारित करना इसका एक उदाहरण है। किसी भी नेता या राजनीतिक दल ने इसका संज्ञान नहीं लिया कि इसका दुरुपयोग कर किसी भी भारतीय नागरिक को बड़ी आसानी से परेशान किया जा सकता है।
क्या यह भेदभाव को कानूनी वैधता प्रदान करने जैसा नहीं? क्या यह लोगों की स्वतंत्रता को बंधक बनाने जैसा नहीं? क्या ऐसे ही स्थापित होगी व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की बंधुता? चूंकि राजनीतिक दलों का उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना है, संकल्पों को लागू करना नहीं इसलिए वे राष्ट्रहित को प्राथमिकता देने से इन्कार करते हैैं। अनेकता में एकता वाले समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम कठिन और जोखिम भरा होता है। चूंकि इसके लिए जो साहस, समर्पण और सद्बुद्धि चाहिए वह अभी भारतीय राजनीति में दिखाई नहीं देती इसलिए हम सभी को एक संकल्प यह भी लेना है कि भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की रक्षा करते हुए उसे श्रेष्ठता की ओर ले जाना है।

दुनिया का कोई भी देश समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम समस्या समाधान के लिए कृतसंकल्प हैं? क्या अपने कर्तव्य बोध और उत्तरदायित्व को हम अपनी स्वतंत्रता का अभिन्न अंग बनाने का भी संकल्प लेंगे?


भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा के लिए हमें आगे आना होगा। धर्म, जाति, मजहब के नाम पर एक-दूसरे की जान के दुश्मन न बनकर हम आपसी प्रेम, सौहार्द एवं भाईचारे की मिसाल बनने की कोशिश करें तो गौरवशाली भारत की एकता और अखंडता को तोड़ने की कोशिश करने वाले चंद स्वार्थी तत्व हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगे। पूर्वजों द्वारा अर्जति नैतिकता, सहनशीलता और इंसानियत के उच्च आदर्श हम भारतीयों के हृदय में हमेशा जीवंत रहने चाहिए। इससे एक सुंदर समाज तथा देश के निर्माण को बल मिलेगा।

नई सोच नयी उम्मीद के साथ बढना है

अगर हम अपने दैनिक जीवन में छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दें तो हमारा देश काफी आगे बढ़ जाएगा। हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हम सिर्फ अपने अधिकारों के लिए ही आवाज बुलंद न करें, बल्कि कर्तव्यों को भी अपनी जीवनशैली में भलीभांति शामिल करना होगा। व्यावसायिकता के इस दौर में हम इतना तेज भाग रहे हैं कि अपने अतीत को देखना ही नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए हम और हमारे विचार भी तेजी से बदल रहे हैं। लेकिन इस तेजी से बदलती दुनिया में जो हम खो रहे हैं उसका ढअहसास हमें अभी नहीं है। हम क्या खो रहे हैं, और हमें उन्हें कैसे बचाना होगा, इसके लिए हमें निरंतर बुजुर्गो के संपर्क में रहना होगा और उनसे इस बारे में राय लेनी होगी, विमर्श करना होगा और फिर उसके अनुकूल आचरण करना होगा, अन्यथा हम अपने ही जड़ों से कट सकते हैं। इससे आजादी के वास्तविक उद्देश्य को हासिल करने की राह से हम भटक सकते हैं।भविष्य के लिए बदलाव एक आवश्यक तथ्य है, लेकिन अपने अतीत को दांव पर लगाकर नहीं। आज के दिन हमें देशभक्ति के नारे लगाने के साथ ही यह भी विचार करना चाहिए कि देश में एक समतामूलक समाज का निर्माण किस तरह से हो सकता है।
स्वतंत्रता दिवस नजदीक है। क्यों न हम इस अवसर पर देश को शिखर पर पहुंचाने का संकल्प लें। सिर्फ संकल्प ही न लें, बल्कि उसे पूरा करने के लिए मनोयोग से लग भी जाएं। हमारे इसी संकल्प से स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को सार्थकता मिल पाएगी। स्वतंत्रता का यह महान पर्व नई उम्मीद और आशाओं के साथ देशवासियों के हृदय में देशप्रेम का भाव जगाने आया है। इस ऊर्जा का उपयोग देशहित में करना ही श्रेयस्कर है।








Comments

Jatin said…
Jai hind
Unknown said…
Happy independence day

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