ये प्रथाऐं हैं साहब हमारा धर्म नहीं। जो जीवन मे अवश्य ही होना चाहिए। हमारे समाज की कुछ एसी प्रथाऐ जो आपको सोच-विचार करने को मजबूर कर देगी।

 ये प्रथाऐ है जो समाज मे व्याप्त हैं एक अनजान शत्रु की तरह।



जब समुदाय के अनेक व्यक्ति एक साथ एक ही तरह के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो वह एक सामूहिक घटना होती है जिसे ‘जनरीति’ (Folkways) कहते हैं। यह जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। इस प्रकार हस्तान्तरित होने के दौरान इसे समूह की अधिकाधिक अभिमति प्राप्त होती जाती है, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी का सफल अनुभव इसे और भी दृढ़ बना देता है, यही 'प्रथा' (custom) है।

कभी-कभी मानव इन प्रथाओं का पालन कानूनों के समान करता है। क्योंकि उसे समाज का भय होता है, उसे भय होता है लोकनिन्दा का और उसे भय होता है सामाजिक बहिष्कार का।
प्रथा की उत्पत्ति एकाएक या एक दिन में नहीं होती। किसी भी प्रथा का विकास धीरे-धीरे और काफी समय में होता है। दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने अनेक नवीन आवश्यकताएँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को दूँढ़ निकालने का प्रयत्न किया जाता है। यह साधन सर्वप्रथम एक विचार (concept) या अवधारणा के रूप में एक व्यक्ति के दिमाग में आता है। व्यक्ति अपने इस विचार के अनुसार कार्य करता है और यह जानने की कोशिश करता है कि उस तरीके से उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है या नहीं। यदि वह अपने इस प्रयास में सफल होता है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकता आ पड़ने पर उसे वह बार-बार दोहराता है। बार-बार दोहराने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जाती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के सफल व्यवहार या क्रिया की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपना लेते हैं। जब व्यवहार की वह विधि समाज में फैल जाती है तो उसे जनरीति (Folkways) कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है तो उसे प्रथा कहते हैं। इस प्रकार एक विचार से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथा की उत्पत्ति या विकास होता है। इस प्रकार प्रथा की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमान दोनों का ही योगदान रहता है। वुण्ट ने लिखा है,
‘‘जहाँ तक हम जानते हैं, प्रथा के विकास का रास्ता केवल एक ही है और वह है समान परिस्थितियों वाली पहले की प्रथा से कार्यप्रणाली, फैशन और आदत; दूसरी ओर नए रूपों और बहुत पहले के विनष्ट अतीत के अवशेषों का मिला-जुला रूप ही प्रथा बन जाता है। प्रथा में कितना अतीत से आया है और कितना गया है, यह अन्तर कर सकना काफी कठिन है। लेकिन एकाएक ही नई प्रथा की कल्पना सम्भव नहीं।
प्रथा की उत्पत्ति एकाएक या एक दिन में नहीं होती। किसी भी प्रथा का विकास धीरे-धीरे और काफी समय में होता है। दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने अनेक नवीन आवश्यकताएँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को दूँढ़ निकालने का प्रयत्न किया जाता है। यह साधन सर्वप्रथम एक विचार (concept) या अवधारणा के रूप में एक व्यक्ति के दिमाग में आता है। व्यक्ति अपने इस विचार के अनुसार कार्य करता है और यह जानने की कोशिश करता है कि उस तरीके से उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है या नहीं। यदि वह अपने इस प्रयास में सफल होता है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकता आ पड़ने पर उसे वह बार-बार दोहराता है। बार-बार दोहराने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जाती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के सफल व्यवहार या क्रिया की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपना लेते हैं। जब व्यवहार की वह विधि समाज में फैल जाती है तो उसे जनरीति (Folkways) कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है तो उसे प्रथा कहते हैं। इस प्रकार एक विचार से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथा की उत्पत्ति या विकास होता है। इस प्रकार प्रथा की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमान दोनों का ही योगदान रहता है। वुण्ट ने लिखा है,
‘‘जहाँ तक हम जानते हैं, प्रथा के विकास का रास्ता केवल एक ही है और वह है समान परिस्थितियों वाली पहले की प्रथा से कार्यप्रणाली, फैशन और आदत; दूसरी ओर नए रूपों और बहुत पहले के विनष्ट अतीत के अवशेषों का मिला-जुला रूप ही प्रथा बन जाता है। प्रथा में कितना अतीत से आया है और कितना गया है, यह अन्तर कर सकना काफी कठिन है। लेकिन एकाएक ही नई प्रथा की कल्पना सम्भव नहीं।

को निभा रहे है  इनके बारे में हमें खुद नहीं पता होता कि यह क्या है हम यह सिर्फ सामाजिक दिखावे के लिए करते हैं लेकिन इस सामाजिक दिखावे के कारण समाज के कई वर्गों को नुकसान झेलना पड़ता है।



दहेजप्रथा-  भारत में दहेज प्रथा सदियों से चली आ रही है प्राचीनकाल में राजा महाराजा अपने से बड़े सम्राट के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना पसंद करते थे और रिश्ता पक्का होने से पूर्व और बाद में तोहफे के रूप में चांदी सोने के थालो में सजा के स्वर्ण मुद्राएं ,गहने ,अश्व या कोई अधीन राज्य भिजवाया जाता था .इस प्रथा का मूल सिर्फ एक ही है जो है अपनी पुत्री जो कि विवाह पश्चात किसी और के घर में रहनेवाली है उसे ससुराल वाले सताए नहीं तथा अपने से बड़े कुल में बेटी ब्याहने से खुद अपने कुल के रुतवे का अत्यधिक बढ़ जाना .और केवल माँ बाप कि ही नहीं अपितु देखा गया है कि खुद कन्याओं कि भी यहि चाहत होती है कि उनका पति उनके पिता या भाई से ज्यादा संपन्न हो और आजकल तो खुद पुत्रियां अपने घरवालों को दहेज देने के लिए विवश करती हैं जिससे कि उनके ससुराल और सोसाइटी में उनकी वाह वाह हो .
दहेज की इस समस्या ने वर्तमान समय में बड़ा ही विकत रूप धारण कर रक्खा है जिसके अंतर्गत वर पक्ष गाडी ,रकम जमीन कि वधु पक्ष से मांग करते हैं और मांग पूरी ना होने पर वधु को तरह तरह से धमकाया और मारा –पीता जाता है
 उसपर भी दहेज की रकम ना हासिल हो तो उसे केरोसिन डाल कर जलाया जाता है जिससे उस वधु से छुटकारा मिलने के उपरान्त दोवारा वर का विवाह किया जा सके और दूसरी वधु के घरवालों से दहेज प्राप्त किया जा सके.दहेज हत्या अक्सर उन्ही वधुओं की होती है जो अपने ससुरालवालों कि नाजायज मांगो के सामने नहीं झुकती या फिर उनके माता पिता अपना घर दुकान इत्यादि बेचकर भी वर पक्ष की इच्छित राशि का प्रवंध नहीं कर पाते .
गरीब मा बाप कई बार अपनी बेटी को विवश और अत्याचार को सहते हुए नहीं देख पाते और अपना सब कुछ गिरवी रख देते हैं जिसका परिणाम ये होता है कि ससुराल वालों के मुंह तो भष्मासुर कि तरह से खुले के खुले ही रहते है और वो खुद भी दर -दर की ठोकर खाने को मजबूर हो जाते हैं ।
दहेज प्रथा (Dowry System), प्रथा के नाम पर एक बहुत क्रूर उपहार संरचना है. इसने शादी जैसे पवित्र रिश्ते को तो खरीद-फरोख्त की जगह बना दी है. लड़कियों की स्थिति को दोयम दर्जा देने में भी इसका बड़ा हाथ है. दहेज के नाम पर कई शादियां टिक नहीं पातीं. ऐसे में यह शादी की संस्था में विश्वसनीयता को कम करने का कारक रहा है. इस पर समाज को फिर से सोचना होगा. हालांकि आज के लड़के-लड़कियां इसके लिए जागरुक हैं. कई लड़कियां दहेज मांगने वाले परिवार में शादी करने से मना कर देती हैं. कई लड़के दहेज के खिलाफ रहते हैं पर परिवार के सामने झुक जाते हैं. इस जगह नई पीढ़ी के लड़के-लड़कियों को ज्यादा मजबूती से काम करने की आवश्यकता है. साथ ही लड़की पक्ष भी अगर लड़कियों की केवल शादी की बजाय उनेके सुखद भविष्य की सोचें और ऐसे रिश्तों से इनकार कर दें तो निश्चय ही परिवर्तन आएगा.


बाल विवाह -

किसी लड़की या लड़के की शादी 18 साल की उम्र से पहले होना बाल विवाह कहलाता है। बाल विवाह में औपचारिक विवाह तथा अनौपचारिक संबंध भी आते हैं, जहां 18 साल से कम उम्र के बच्‍चे शादीशुदा जोड़े की तरह रहते हैं। बाल विवाह, बचपन खत्‍म कर देता है। बाल विवाह बच्‍चों की शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और संरक्षण पर नकारात्‍मक प्रभाव डालता है।
बाल विवाह का एक बड़ा कारण वर मूल्य अथवा दहेज प्रथा है । इससे अनेक लोग वर मिल जाने से छोटी आयु में ही शीघ्र से शीघ्र कन्या का विवाह कर देना अच्छा समझते हैं । ( संयुक्त परिवार: संयुक्त परिवार में विवाह हो जाने पर भी लड़कों पर अपनी पत्नी और बच्चों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता था ।
हालाँकि इस प्रथा को रोकने के लिए कई सरकारी एवं सामाजिक तरीको का इस्तेमाल किए गया है। बालविवाह को रोकने के लिए इतिहास में कई लोग आगे आये जिनमें सबसे प्रमुख राजाराम मोहन राय, केशबचन्द्र सेन जिन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा एक बिल पास करवाया जिसे Special Marriage Act कहा जाता हैं इसके अंतर्गत शादी के लिए लडको की उम्र 18 वर्ष एवं लडकियों की उम्र 14 वर्ष निर्धारित की गयी एवं इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। फिर भी सुधार न आने पर बाद में Child Marriage Restraint नामक बिल पास किया गया इसमें लडको की उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष और लडकियों की उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गयी। स्वतंत्र भारत में भी सरकार द्वारा भी इसे रोकने के कही प्रयत्न किये गए और कही क़ानून बनाये गए जिस से कुछ हद तक इनमे सुधार आया परन्तु ये पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ। सरकार द्वारा कुछ क़ानून बनाये गए हैं जैसे बाल-विवाह निषेध अधिनियम 2006 जो अस्तित्व में हैं। ये अधिनियम बाल विवाह को आंशिक रूप से सीमित करने के स्थान पर इसे सख्ती से प्रतिबंधित करता है। इस कानून के अन्तर्गत, बच्चे अपनी इच्छा से वयस्क होने के दो साल के अन्दर अपने बाल विवाह को अवैध घोषित कर सकते है। किन्तु ये कानून मुस्लिमों पर लागू नहीं होता जो इस कानून का सबसे बड़ी कमी है।
लेकिन यह प्रथा रोकी नही जा सकी है।





सती प्रथा


क्या थी सती प्रथा? यह एक ऐसी प्रथा थी जिसमें पति की मौत होने पर पति की चिता के साथ ही उसकी विधवा को भी जला दिया जाता था। कई बार तो इसके लिए विधवा की रजामंदी होती थी तो कभी-कभी उनको ऐसा करने के लिए जबरन मजबूर किया जाता था। पति की चिता के साथ जलने वाली महिला को सती कहा जाता था जिसका मतलब होता है पवित्र महिला।


सती जैसी प्रथाएं समाज के लिए कलंक है. इस तरह की प्रथाएं समाज में महिलाओं के खिलाफ अन्याय को बढ़ावा देती हैं. इस प्रथा की आड़ में जाने कितने परिवार खत्म हुए, बच्चों से मां का आसरा छीना गया. इस कुप्रथा के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई के बाद आज ही के दिन यानी 4 दिसंबर को हमारे समाज को इस कुप्रथा से मुक्ति मिली थी. सती जैसी प्रथाएं समाज के लिए कलंक है. इस तरह की प्रथाएं समाज में महिलाओं के खिलाफ अन्याय को बढ़ावा देती हैं. इस प्रथा की आड़ में जाने कितने परिवार खत्म हुए, बच्चों से मां का आसरा छीना गया. इस कुप्रथा के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई के बाद आज ही के दिन यानी 4 दिसंबर को हमारे समाज को इस कुप्रथा से मुक्ति मिली थी. सती प्रथा में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को भी चिता पर बिठा दिया जाता था. उसे भी अपने प्राण त्यागने के लिए विवश किया जाता था.
मान्यताओं के अनुसार मां दुर्गा के रूप सती ने पति भगवान शिव की पिता दक्ष के द्वारा किये गये अपमान से क्षुब्ध होकर अग्नि में आत्मदाह कर लिया था. कई लोग मानते हैं कि यहीं से सती प्रथा की शुरुआत हुई थी. लेकिन इसे भी सती प्रथा के समान नहीं माना जा सकता क्योंकि इस समय उनके पति जीवित थे.
4 लेकिन इसे भी सती प्रथा के समान नहीं माना जा सकता क्योंकि इस समय उनके पति जीवित थे.  भारतीय इतिहास की बात करें तो गुप्तकाल में 510 ईसवी के आसपास सती प्रथा के होने के प्रमाण मिलते हैं. महाराजा भानुप्रताप के राज घराने के गोपराज की युद्ध में मृत्यु हो जाने के बाद उनकी पत्नी ने अपने प्राण त्याग दिए थे. अपनी आंखों के सामने पाप होते हुए देख भी लोगों ने उसे धर्म का आदर करना समझा. कुछ क्षेत्रों में तो लोगों ने मृत पति की जायदाद पर कब्ज़ा करने के लिए पत्नियों को जबर्दस्ती सती होने पर जोर दिया. लेकिन फिर 19वीं शताब्दी में इसे रोकने के लिए बदलाव की हवा बहने लगी.
क्या कारण थे सती प्रथा के
प्राचीन काल में सती प्रथा का एक यह भी कारण रहा था। आक्रमणकारियों द्वारा जब पुरुषों की हत्या कर दी जाती थी, उसके बाद उनकी पत्नियाँ अपनी अस्मिता व आत्मसम्मान को महत्वपूर्ण समझकर स्वयमेव अपने पति की चिता के साथ आत्मत्याग करने पर विवश हो जाती थी।
कालांतर में महिलाओं की इस स्वैच्छिक विवशता का अपभ्रंश होते-होते एक सामाजिक रीति जैसी बन गयी, जिसे सती प्रथा के नाम से जाना जाने लगा।
जिस पर अब पूर्ण रोकथाम की गई है।






बली प्रथा-
बलि प्रथा मानव जाति में वंशानुगत चली आ रही एक सामाजिक प्रथा अर्थात सामाजिक व्यवस्था है। इस पारम्परिक व्यवस्था में मानव जाति द्वारा मानव समेत कई निर्दोष प्राणियों की हत्या यानि कत्ल कर दिया जाता है। विश्व में अनेक धर्म ऐसे हैं, जिनमें इस प्रथा का प्रचलन पाया जाता है। यह मनुष्य जाति द्वारा मात्र स्वार्थसिद्ध की व्यवस्था है, जिसे बलि-प्रथा कहते है। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता है। बलि प्रथा के अंतर्गत बकरा, मुर्गा या भैंसे की बलि दिए जाने का प्रचलन है। हिन्दू धर्म में खासकर मां काली और काल भैरव को बलि चढ़ाई जाती है। उन्हें बलि चढ़ाने के लिए कई तरह के तर्क दिये जाते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा है? यदि वेद और पुराणों की मानें तो नहीं और यदि अन्य धर्मशास्त्रों की मानें तो हां। हालांकि वेद, उपनिषद और गीता ही एकमात्र धर्मशास्त्र है। पुराण या अन्य शास्त्र नहीं। यदि वेद, उपनिषद और गीता इसकी इजाजद नहीं देती तो फिर यह प्रथा क्यों?विद्वान मानते हैं कि हिन्दू धर्म में लोक परंपरा की धाराएं भी जुड़ती गईं और उन्हें हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाने लगा। जैसे वट वर्ष से असंख्य लताएं लिपटकर अपना अस्तित्व बना लेती हैं लेकिन वे लताएं वक्ष नहीं होतीं उसी तरह वैदिक आर्य धर्म की छत्रछाया में अन्य परंपराओं ने भी जड़ फैला ली। इन्हें कभी रोकने की कोशिश नहीं की गई।बलि प्रथा का प्राचलन हिंदुओं के शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में ही देखने को मिलता है लेकिन इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है। शाक्त या तांत्रिक संप्रदाय अपनी शुरुआत से ऐसे नहीं थे लेकिन लोगों ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कई तरह के विश्वास को उक्त संप्रदाय में जोड़ दिया गया।..बहुत से समाजों में लड़के के जन्म होने या उसकी मान उतारने के नाम पर बलि दी जाती है तो कुछ समाज में विवाह आदि समारोह में बलि दी जाती है जोकि अनुचित मानी गई है। वेदों में धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार की बलि प्रथा कि इजाजत नहीं दी ।

मृत्यूभोज

दाह संस्कार करने के नियम के अंतर्गत कपाल क्रिया, पिंडदान के अलावा घर की साफ-सफाई की जाती है। ... जिसमें एकादशगात्र को पीपल वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान आदि होता है। द्वादसगात्र में गंगाजल से घर पवित्र किया जाता है। फिर त्रयोदशी को सामूहिक भोज दिया जाता है।

 ऐसा माना जाता है कि मरणोपरांत ब्राह्मण को भोजन कराने से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है, लेकिन महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार मृत्युभोज को खाना ऊर्जा के लिए हानिकारक माना गया है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।


जिस परिवार में विपदा आई हो उसके साथ इस संकट की घड़ी में जरूर  खड़े हों और तन, मन, धन से सहयोग करें लेकिन मृतक भोज का बहिष्कार करें।
महाभारत युद्ध होने को था, अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया । दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, 
तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कृष्ण ने कहा कि
’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’
अर्थात्
जब खिलाने वाले और खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए।
लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो, ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए। 

हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है, जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वां संस्कार अन्त्येष्टि है। इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवां संस्कार 'तेरहवीं संस्कार' कहाँ से आ टपका। इससे साबित होता है कि तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है। 

किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है। बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है। लेकिन जिसने जीवन पर्यन्त मृत्युभोज खाया हो, उसका तो ईश्वर ही मालिक है। इसी लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती, पं. श्रीराम शर्मा, स्वामी विवेकानन्द जैसे महान मनीषियों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है। 



जिस भोजन बनाने का कृत्य...जैसे रोकर लकड़ी फाड़ी जाती हो, रोकर ही आटा गूंथा जाता हो, रोकर ही  पूड़ी बनाई जाती  आदि यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा हो। ऐसे आंसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भोजन का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा दें।

जनवर तक अपने साथी के बिछुड़ जाने पर उस दिन चारा नहीं खाता है। दूसरी ओर 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव, जवान आदमी की मृत्यु पर हलुवा पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढोंग रचता है। इससे बढ़कर निन्दनीय कोई दूसरा कृत्य हो नहीं सकता। मृत्युभोज समाज में फैली कुरीति है व समाज के लिये अभिशाप है, इसका बहिष्कार करें।








Comments

Anonymous said…
BAHUT ACHCHHA

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